डॉ. राममनोहर लोहिया के शिष्य समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस का मंगलवार को दिल्ली में निधन हो गया। 88 वर्षीय फर्नांडिस लंबे समय से अल्जाइमर से पीड़ित थे। इस बीमारी में पीड़ित की याददाश्त चली जाती है। जार्ज एक ऐसे नेता थे, जो आम आदमी की आवाज बनकर हर वक्त खड़े रहते थे। हमारे देश में ऐसे कम नेता ही होंगे जो संघर्षों से जूझते हुए शीर्ष तक पहुंचे। वर्तमान पीढ़ी के लिए भले ही जार्ज एक सांसद व मंत्री के रूप में पहचान रखते हों, लेकिन यह उनके राजनीतिक जीवन का एक हिस्सा मात्र है। यह ठीक है कि वे नौ बार लोकसभा चुनाव जीते, जो भी एक बड़ी बात है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वे रक्षा मंत्री थे और करगिल युद्ध उनके सम य में ही लड़ा गया था।
इसके अलावा भी वे तीन बार अलग-अलग मंत्रालयों के मंत्री रहे। जब वे रक्षा मंत्री थे तब 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी की आलोचनाओं का सिलसिला चला, लेकिन जार्ज ने एक निष्ठावान मंत्री के नाते वाजपेयी का जोरदार ढंग से बचाव किया। एक समाजवादी नेता का परमाणु परीक्षण का समर्थक बनना उस वक्त में यह समय की मांग थी, जिसे जार्ज ने भी माना। करगिल युद्ध के दौरान भी उन्होंने भारतीय जवानों का हौसला बढ़ाने में आगे रहे। सियाचिन का सबसे ज्यादा दौरा करने वाले भी अकेले नेता माने जाते हैं।
जार्ज फर्नांडिस एक प्रख्यात मजदूर नेता थे और समाजवादी विचारों के थे। उन्होंने अपनी युवावस्था में मुंबई के फुटपाथ से आम समस्याओं के लिए संघर्ष की शुरूआत की और सत्ता के विरोध व आंदोलनों के पर्याय बनते गए। 1974 में सबसे लंबे समय तक चली रेल हड़ताल उनके नेतृत्व में ही चली। उस हड़ताल के समर्थन में कई अन्य मजदूर संगठनों ने भी हड़ताल की। अपने विद्रोही स्वभाव की वजह से वे हमेशा सत्ता के निशाने पर रहे। कितनी बार उन्होंने पुलिस की बर्बरता को सहा, घायल होकर अस्पताल में भर्ती हुए और जेल तक गए।
देश में जब इमरजेंसी थोपी गई तो जार्ज फर्नांडिस एक बड़े विरोधी चेहरे के रूप में उभरे। यदि इमरजेंसी नहीं हटती तो उन्हें राष्ट्रद्रोह के आरोप में उन्हें फांसी की सजा तक दी जा सकती थी, क्योंकि उनके खिलाफ ऐसा भी मुकदमा दर्ज किया गया था। 3 जून 1930 को जॉन जोसफ फर्नांडिस और एलिस मार्था के घर कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे जार्ज के पिता उन्हें पादरी बनाना चाहते थे, लेकिन इस पढ़ाई में उनका मन नहीं लगा। आखिर वे घर से भागकर मुंबई पहुंचे। फुटपाथ पर सोए और संघर्षों का सामना करते हुए टैक्सी ड्राइवर बने और फिर ड्राइवरों के नेता बन गए। समाजवादी बने और डॉ. लोहिया के सम्पर्क में आए और सालों तक उनके सहयोगी रहे।
1967 में मुंबई के बेताज के बादशाह माने जाने वाले एस.के. पाटिल जैसे नेता को चुनाव में हराकर लोकसभा पहुंचे और युवा संघर्ष के प्रतीक बने। 1977 में बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा के लिए चुने गए। 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में रेल मंत्री बने और 1994 में जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया। 1996 में भाजपा के साथ मिलकर राजनीति की नई पारी शुरू की।
आखिर 2009 में उनका राजनीतिक पराभव होता गया। उनकी ही पार्टी ने उन्हें टिकट देने से इंकार कर दिया। हालांकि कुछ समय बाद उन्हें राज्यसभा में भेज दिया गया। सत्ता की राजनीति में संघर्ष के बाद सत्ता में आने वाले व्यक्तित्व जैसा नेता आज हमारे बीच नहीं रहा।